अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

सामान्य प्रश्नों के लिए यहाँ पर दिये गए उत्तर केवल संभावित उत्तर हैं जो एक सुझाव के रूप में आपकी मदद करते हैं ताकि इनकी तर्ज पर आप अपने विचार या उत्तर तैयार कर सकें। हम चाहते हैं कि आप इन जवाबों को ना तो याद करें ना ही दोहराएँ बल्कि इन मुद्दों पर चर्चा करते समय इन उत्तरों को एक दिशानिर्देश के रूप में उपयोग करें।

सामान्य जानवरों के क्या क्या अधिकार हैं?

जब हम यह कहते हैं कि जानवरों के भी अधिकार हैं तो इसका मतलब यह है कि उनके हितों का भी ध्यान रखा जाये चाहे वह प्यारे हों, इन्सानों के लिए उपयोगी हो या फिर भले ही कोई इंसान उनकी कद्र करे या न करे।

“जानवरों के अधिकार” और “जानवरों के कल्याण” में क्या अंतर है ?

“जानवरों का कल्याण” एक ऐसी विचारधारा है जिसमें यह तो माना गया है कि जानवरों के भी कुछ हित होते हैं लेकिन उनकी स्वीकृति मानव हितों पर निर्भर करती है। पशु अधिकारों की पैरवी करने वालों का मानना है कि पशुओं के भी हित होते हैं और उनका अस्तित्व किसी दूसरे वर्ग के लाभ या हानी के अनुसार तय नहीं किया जा सकता। हालाँकि, पशु अधिकार का मतलब यह नहीं कि उनके अधिकार निरपेक्ष हैं, पशुओं के अधिकार भी इन्सानों की तरह ही सीमित होने चाहिए और यह निश्चित रूप से संघर्ष कर सकते हैं। पशु अधिकारों की पैरवी करने वालों का यह भी मानना है कि जानवर हमारा भोजन बनने, वस्त्र बनने, उन पर प्रयोग किए जाने या फिर हमारे मनोरंजन के लिए नहीं हैं। जबकि पशु कल्याण का समर्थन करने वालों का मानना है कि ये उपयोग केवल तब तक ठीक है जब तक “मानवीय” दिशानिर्देशों का पालन किया जा रहा है।

जानवरों के क्या क्या अधिकार होने चाहिए ?

जानवरों को अपने हितों के बारें में सोचने का हक है। उदाहरण के लिए, एक कुत्ते का हित इस बात में है कि वो बिना वजह किसी दुर्व्यवहार का शिकार न हो व अनाहक कष्ट या पीड़ा न सहे। इसलिए हम उसके इस हित को ध्यान में रखते हुए उसके अधिकार का सम्मान करने के लिए बाध्य हैं।

हालांकि, जानवरों को मनुष्यों को बराबर अधिकार प्राप्त नहीं हैं क्यूंकी उनके हित मनुष्यों के समान नहीं हैं व कुछ अधिकार उनके जीवन पर लागू भी नहीं होते जो उनके लिए अप्रासंगिक होंगे। उदाहरण के लिए चुनाव के दौरान एक कुत्ते को वोट डालने का कोई औचित्य नहीं है इसलिए उसको वोट देने का अधिकार नहीं है, जैसे एक बच्चे के लिए वोट देने के अधिकार का कोई मतलब नहीं ठीक उसी समान कुत्ते के लिए भी इस अधिकार का कोई अर्थ नहीं।

आप कैसे निर्धारण करोगे कि उनके क्या अधिकार होंगे ?

अपने जीवनकाल में इन्सानों व पशुओं दोनों के लिए बहुत से काम करने वाले मशहूर मानवतावादी ‘एल्बर्ट श्वेतजर’ मानते हैं कि किसी लार्वा को गर्म फुटपाथ से उठाकर पृथ्वी की ठंडी सतह पर रखने व चलाने में थोड़ा समय लगेगा। नैतिक मूल्य बढ़ने पर हमको समस्याओं एवं जिम्मेदारियों का भी एहसास होता है, वह कहते हैं –“हर व्यक्ति, जितना हो सके उतनी बुद्धिमानी एवं दयाभाव से प्रतिदिन सामने आने वाली घटनाओं के अनुसार निर्णय लें व एकबार पुनः अपने निर्णय को जांच परख कर अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचे”।

माना की हम सभी प्रकार के दुखों को रोक नहीं सकते लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमें प्रयास नहीं करने चाहिए। आज की दुनिया में भोजन, वस्त्र व मनोरंजन के अनेकों विकल्प मौजूद हैं तो हमको इन सबके लिए पशुओं को पीड़ा देने या उनकी हत्या करने की जरूरत नहीं है।

पौधों के बारे में क्या ?

वैज्ञानिक समुदाय भी अब पौधों की उन्नत क्षमताओं को पहचान रहा है। हम भी जानते हैं कि पेड़ पौधे भी समवेदनाओं का अनुभव करते हैं उदाहरण के लिए किसी हमले से बचने या बारिश से पहले व बाद में वो खुलने या बंद होने की क्रिया करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि पौधे अपनी शाखाओं पर एक कैटरपिलर जितने हल्के भार को भी महसूस कर सकते है व जैसे इंसान अपने दिमाग से अपने शरीर के बाकी हिस्सों को संदेश भेजता है ठीक वैसे ही ये पौधे भी नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों से बचने के लिए अन्य पत्तों को खराब स्वाद वाला रसायन छोड़ने की चेतावनी देते हैं। अध्ययन से पता चलता है की पौधे एक दूसरे के साथ संवाद करते हैं जैसे अपनी जड़ों के माध्यम से औषधीय योगिकों को सांझा करना, भूमिगत कवक नेटवर्क व हवा के द्वारा फेरोमोन जारी करना, देखना, सुनना, सूंघना, पर्यावरण के खतरों को भाँपकर उनपर प्रतिक्रिया देना, अन्य छोटे पौधों को ज्ञान देना व और भी बहुत कुछ करते हैं।

जिस तरह एक समय में, बहुत से लोगों को यह महसूस नहीं हुआ कि ऑक्टोपस – जिनके तंत्रिका तंत्र मनुष्यों और अन्य जानवरों से काफी भिन्न होते हैं – वे बेहद बुद्धिमान और दर्द के प्रति संवेदनशील होते हैं, यह संभव है कि पौधों में भी बुद्धि और भावना होती है जो इंसान अभी तक नहीं खोज पाया है। शायद एक दिन, हम जान जाएंगे की पौधों में दर्द महसूस करने की क्षमता व तरीके है जो हमको अभी भी पीटीए लगाने की जरूरत है।  हम माने या न माने लेकिन अनावश्यक रूप से पौधों को नुकसान पहुंचाने की कोई आवश्यकता नहीं होती। हमें जीवित रहने के लिए भोजन करने की आवश्यकता होती है लेकिन हम वीगन भोजन अपनाकर पौधों को नुकसान से बचा सकते हैं क्योंकि पौधों को सीधे खाने के बजाय, उन्हें पहले जानवरों का भोजन बनाने और फिर उन जानवरों को मारकर उनका मांस खाने की क्रिया में बहुत अधिक पौधों की खपत होती है और हमें पहले से ही पता है की उनको भी दर्द महसूस होता है। उदाहरण के लिए, 1 पाउंड गौमांस का उत्पादन करने के लिए 16 पाउंड वनस्पतियों की खपत होती है इसलिए वीगन होने पर गैर मांसाहारी भोजन खाने से हम कई और पौधों का जीवन बचाते हैं। वीगन होने पर हम प्रतिवर्ष लगभग 200 ऐसे जानवरों को बचाते हैं जिनके अंदर मनुष्यों की तारह संवेदनाएं व भावनाएं होती है तथा जो दर्द, असुविधा, भय और उदासी का अनुभव कर सकते हैं। यह साबित किया जा सकता है कि पौधे दर्द का अनुभव करते हैं या नहीं, वीगन भोजन एक दयालु विकल्प हैं क्योंकि इसमे मांसाहारी भोजन के विपरीत बहुत कम पौधों व जानवरों की मृत्यु की आवश्यकता होती है।

यह ठीक है की आप जानवरों के अधिकारों में विश्वास रखें लेकिन अन्य लोगों को यह बताने की जरूरत नहीं की उन्हे क्या करना चाहिए ?

आप मुझे बता रहें हैं की मुझे क्या करना चाहिए !

हर व्यक्ति को अपनी राय रखने का अधिकार है किन्तु सोचने की आज़ादी एवं करने की आज़ादी में फर्क है। आप को सोचने की आज़ादी है लेकिन सिर्फ तब तक जब तक की आप किसी और को नुकसान नहीं पहुंचाते। आप यह सोच सकते हैं कि जानवरों को मार देना चाहिए, अश्वेत लोगों को गुलाम बना लेना चाहिए या फिर किसी औरात की पिटाई करनी चाहिए किन्तु आपको अपनी इस सोच को हकीकत में बदलने का अधिकार नहीं है।

लोगों को यह बताना की उनको क्या करना चाहिए इसके लिए संस्थाए हैं जो इंसानी व्यवहार को नियंत्रित करने वाले नियम बनाती हैं। सुधार हेतु चलाये जाने वाले आंदोलनों का उद्देश्य दूसरों को यह बताना होता है कि उनका कौन सा व्यवहार सही है जैसे – मनुष्यों का गुलाम के रूप में उपयोग न करना, महिलाओं का यौन उत्पीड़न न करना आदि। सभी आंदोलनों को शुरू में उन लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है जो आलोचनात्मक व्यवहार में भाग लेना जारी रखना चाहते हैं।

जानवर कारण नहीं समझते, न वो अपने अधिकारों को समझते हैं और न हमारे अधिकारों का सम्मान करते हैं तो फिर हमें अपनी नैतिकता वाले विचारों को उनपर क्यों थोपना चाहिए ?

हम अपने नैतिक विचारों को उनपर लागू करते हैं, जानवरों का इन नियमों को समझ पाना उतना ही अप्रासंगिक है जितना की किसी अबोध बच्चे या फिर किसी मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति के द्वारा अधिकारों को समझ पाना। जानवर अपने अधिकारों के अनुसार अपने व्यवहार में परिवर्तन नहीं कर सकते लेकिन इन्सानों के पास इतनी क्षमता है की वो यह समझ सकें की उनका कौन सा व्यवहार दूसरों के लिए नुकसान दायक है और कौन सा नहीं।

यह पूरी तरह से संभव नहीं की पशु आधारित उत्पादों के सेवन से बचा जाए। लेकिन यदि बिना एहसास किए जानवरों को पीड़ित कर रहे हैं तो फिर इस बात का क्या औचित्य है ?

कुछ नुकसान पहुंचाए बिना अपना जीवन जीना संभव नहीं है, कई बार गलती से नन्ही चींटियां हमारे पैरों के नीचे आ जाती हैं या सांस लेने के दौरान हवा में उड़ने वाले छोटे कीड़े हमारे मुंह में चले जाते हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम जानबूझकर उनको नुकसान पहुंचाए। यह ठीक वैसा ही आचरण है जैसे कि गलती से हमारी कार किसी से टकरा जाती है लेकिन हम जानबूझ कर कभी किसी के ऊपर तो कार नहीं चड़ा देते।

उन सब रीति रिवाजों, त्योहारों एवं रस्मों का क्या होगा जो जानवरों पर निर्भर करती हैं ?

उदाहरण के लिए, ऑटोमोबाइल का आविष्कार और द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति, भी अपरिहार्य रूप से नौकरी का पुन: संचालन और पुनर्गठन का कारण बनी। यह सभी सामाजिक प्रगति का एक हिस्सा है, प्रगति का कारण नहीं है।

 समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें मदद की ज़रूरत है, तो आप जानवरों पर अपना समय बिताने को कैसे सही ठहरा सकते हैं ?

दुनिया में बहुत गंभीर समस्याएं हैं जो हमारे ध्यान देने योग्य हैं; जानवरों के प्रति क्रूरता उनमें से एक है। हमसे जितना हो सके दूसरों के दुखों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। जानवरों की मदद करना इंसानों की मदद करने से ज्यादा या कम महत्वपूर्ण नहीं है – वे दोनों महत्वपूर्ण हैं। पशु पीड़ा और मानव पीड़ा परस्पर जुड़े हुए हैं। 

भोजन, फर या प्रयोगों के लिए उपयोग होने वाले अधिकांश पशु केवल उसी उद्देश्य के लिए पैदा किए जाते हैं ?

एक निश्चित उद्देश्य के लिए पैदा किए जाने का मतलब यह नहीं की जानवरों के अंदर दर्द और भय महसूस करने की जैविक क्षमता बदल जाती है।

फैक्ट्री फार्मों या प्रयोगशालाओं में जिन जानवरों को पिंजरों में रखा जाता है, उन्हें कभी कुछ और पता नहीं होता है, वे उतनी पीड़ा का अनुभव नहीं करते, या करते हैं ?

किसी को उसके मूलभूत सहज व्यवहार में रहने से रोक्न उसको जबरदस्त पीड़ा देने जैसा होता है। यहां तक ​​कि जिन जानवरों को जन्म के बाद से पिंजरों में कैद कर दिया जाता है उनको भी खुद को घुमाने, अपने अंगों या पंखों को फैलाने और व्यायाम करने की आवश्यकता महसूस होती है। झुंड में रहने वाले जानवर या समूह में रहने वाली चिड़ियों को जब मजबूरन अपने दल से अलग कर एकांत या फिर बहुत बड़े समूहों में रखा जाता है जहां वो एक दूसरे को पहचान तक नहीं सकते तो उनको गहरा तनाव होता है। इसके अलावा, कैद में रहने वाले जानवर काफी बोरियत महसूस करते हैं जिस कारण उनका व्यवहार बेहद उग्र होता है जिसके चलते वह स्वयं के शरीर या फिर दूसरों को नोच लेना या काट लेना जैसा नुकसान पहुँचाते हैं।  

अगर पशुओं का शोषण करने के सभी तरीके गलत होते तो क्या वह सब गैरकानूनी करार न दे दिये गए होते ?

नैतिकता का कानून बने इस बात की कोई गारंटी नहीं है। किसके पास कानूनी अधिकार होंगे ओर किसके पास नहीं होंगे इस बात का निर्धारण आज के विधायक करते हैं। लोगों की सार्वजनिक राय और राजनीतिक प्रेरणाओं से कानून बनते और बदलते रहते हैं किन्तु नैतिकता हमेशा नैतिकता ही रहती है। मिसाल के तौर पर ‘इन्सानों को गुलाम’ बनाकर रखना और ‘महिलाओं पर अत्याचार’ करना किसी जमाने में वैध माना जाता था।

क्या आप कभी किसी बूचड़खाने या किसी जीविका प्रयोगशाला में गए हैं ?

नहीं, लेकिन इन स्थानों पर क्या होता है इस विषय पर बहुत से लोगों ने बहुत कुछ लिखा भी है और फिल्में भी बनाई हैं। बाल शोषण या बलात्कार की ही तरह जानवरों पर होने वाले अत्याचारों की आलोचना करने के लिए जरूरी नहीं की पहले उन अत्याचारों का पास से अनुभव किया जाए। इस दुनिया में जितनी तरह के भी अत्याचार हैं हर कोई उन सबका अनुभव नहीं कर सकता लेकिन इसका मतलब यह नहीं की उन सब तरह के अत्याचारों को रोकने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए जिनको हम रोक सकते हैं या आवाज़ उठा सकते हैं।

जानवर इन्सानों की तरह बुद्धिमान या उन्नत नहीं होते, या होते हैं ?

एक इंसान का ज्यादा बुद्धिमान होना उसे अपने स्वार्थों के लिए कम बुद्धिमान इंसान का शोषण करने का अधिकार नहीं देता, तो फिर उस इंसान को गैर-मनुष्यों के साथ दुर्व्यवहार करने का अधिकार क्यों देना चाहिए? कुछ जानवर निर्विवाद रूप से अधिक बुद्धिमान, रचनात्मक, जागरूक, संप्रेषणीय होते हैं और कुछ मनुष्यों की तुलना में भाषा का उपयोग करने में सक्षम होते हैं (उदाहरण के लिए, एक चिंपांज़ी, इंसान के बच्चे या गंभीर मानसिक विकलांग व्यक्ति की तुलना में अधिक “चालाक” होता है)। क्या अधिक बुद्धिमान जानवरों के पास कोई अधिकार हैं या फिर कम बुद्धिमान इन्सानों को अधिकारों से वंचित किया जाना चाहिए? 

फैक्ट्री फ़ार्म और फ़र फ़ार्म की स्थितियाँ जंगल की स्थिति से ज्यादा बदतर नहीं होती क्योंकि जंगल में जानवर भुखमरी और बीमारियों से मर जाते हैं, या होती हैं? फैक्ट्री फ़ार्म और फ़र फ़ार्म कम से कम उन्हे भोजन और सुरक्षा तो मिलती है। अमेरिका में ‘गुलाम मालिकों’ ने भी एक बार यही तर्क दिया था उन्होने दावा किया था कि उनके गुलाम अफ्रीकी-अमेरिकी, स्वतंत्र पुरुषों और महिलाओं की तुलना में गुलाम के रूप में अधिक बेहतर जीवन जीते हैं। जेल में लोगों को खाना भी मिलता है और सुरक्षा भी, फिर भी जेल की सजा को समाज की कठोरतम सजाओं में से एक माना जाता है। फ़ेक्ट्री फ़ार्म्स पर जानवरों को इतनी अधिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है यह कहना गलत होगा कि उनको जंगल में ज्यादा पीड़ा मिलती है। जंगल में रहने वाले जानवरों के लिए जंगल उनका घर होता है शोषण कि जगह नहीं। वहाँ वो आज़ाद हैं और उन सब गतिविधियों में भाग ले सकते हैं जो उनके लिए प्राकृतिक और महत्वपूर्ण हैं। तथ्य यह है कि हो सकता है जंगल का जीवन पीड़ादायी हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनको कैद में रहकर पीड़ा सहनी चाहिए।

 

शाकाहार

शाकाहारी होना व्यक्ति की पसंद पर निर्भर करता है या नहीं करता ? आप इसे बाकी अन्य सभी पर लागू करने की कोशिश क्यों कर रहे हैं ?

एक नैतिक दृष्टिकोण से, दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाले कार्य व्यक्तिगत पसंद के मुद्दे नहीं हो सकते। हत्या, बाल शोषण और जानवरों के प्रति क्रूरता सभी अनैतिक हैं। हमारा समाज अब मांस खाने और फैक्ट्री फ़ार्म्स को प्रोत्साहित करता है, लेकिन इतिहास यह बताता है कि इसी समाज ने पहले कभी गुलामी, बाल श्रम और कई अन्य प्रथाओं को प्रोत्साहित किया था जिन्हें अब सर्वसम्मति से गलत माना जाता है।

 

जानवर अपने भोजन के लिए दूसरे जानवरों को मारते हैं, तो फिर हम क्यों नहीं मार सकते ?

जानवरों का भोजन बनने वाले अन्य अधिकांश जानवर जीवित नहीं रह सकते थे यदि वे रेह पाते तो वो उनका भोजन नहीं बन सकते। दूसरी ओर, हम पौधे आधारित भोजन पर आसानी से जीवित रह सकते हैं। हम बिना मांस खाये अधिक स्वस्थ रहते हैं। बहुत से जानवर शाकाहारी होते हैं जिनमें कुछ तो इन्सानों के करीबी जानवर शामिल हैं। मांसाहारियों के बजाय हम उन शाकाहारी जानवरों का उदाहरण क्यों नहीं देखते हैं ?

 भी न कभी तो जानवरों को भी मरना ही है, या नहीं ?

मरना तो इंसान को भी है एकदिन, लेकिन यह आपको उन्हें मारने या जीवन भर दुख देने का अधिकार नहीं देता है। 

किसान या तो अपने जानवरों के साथ अच्छा व्यवहार कर सकता है या फिर उनसे ज्यादा दूध और अंडे प्राप्त कर सकता है, एक ही काम होगा ?

भारत में अधिक से अधिक जानवरों को फैक्ट्री फ़ार्म्स पर पाला पोसा जाता है। इन जानवरों का वजन नहीं बढ़ता, वह अधिक मात्र में अंडे व दूध देते रहें इसके लिए उनको अप्राकृतिक तरीकों के द्वारा उनका पालन, दवाएं, हार्मोन्स व प्रबंधन तकनीकों के माध्यम से देखरेख की जाती है। इसके अलावा,

मांस के लिए पाले गए जानवरों की बेहद कम उम्र में ही हत्या कर दी जाती है, आमतौर पर बीमारी और दुख से पहले उन्हें मार सकते हैं।क्योंकि मांस प्राप्त करने के लिए इन जानवरों को बड़ी तादात में पाला जाता है इसलिए किसान या डेयरी मालिक के लिए वहाँ मानवीय परिस्थितियां बनाने से ज्यादा फायदेमंद होता है कि वो थोड़ा बहुत नुकसान उठा लें। 

गर सभी शाकाहारी हो जाएं तो हम उन सभी मुर्गियों, गायों और सूअरों का क्या करेंगे?

यह उम्मीद करना कि सभी लोग रातो रात शाकाहारी हो जाएंगे यह अवास्तविक सा लगता है। अगर मांस कि मांग घटेगी तो भोजन के लिए पाले जाने वाले जानवरों कि संख्या में कमी आएगी। किसान जानवरों का प्रजनन बंद करके अन्य प्रकार की फसलों कि खेती की ओर रुख करेंगे। जब इन जानवरों कि संख्या कम होगी तो वह अधिक प्राकृतिक जीवन जी पाने में सक्षम होंगे।

 यदि सभी लोग शाकाहारी होते, तो बहुत से जानवरों का जन्म भी नहीं होता। क्या यह जानवरों के लिए बुरा नहीं होगा ?

फैक्ट्री फ़ार्म्स पर जानवरों का जीवन इतना दयनीय है कि यह देख पाना मुश्किल होता है कि वहाँ किस प्रकार से उनका प्रजनन हो रहा है, उन्हें बंदी बनाकर रखा जा रहा है, उन्हें पीड़ा दी जा रही है और अंततः उनका वध कर दिया जा रहा है।  

अगर हर कोई पूरी तरह से सब्जियों, अनाज और अन्य पौधे आधारित खाद्य पदार्थों को खाना शुरू कर दे तो क्या यह सबके खाने के लिए पर्याप्त होगा ?

हाँ, हम जानवरों को इतना अनाज खिलाते हैं ताकि उनसे अधिक मात्र में मांस प्राप्त किया जा सके। अगर हम सभी शाकाहारी हो गए, तो हम पूरी दुनिया को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन पैदा कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में, मकई की कुल पैदावार का 80 प्रतिशत व जई (Oat) की कुल पैदावार का 95 प्रतिशत हिस्सा जानवरों को खिलाया जाता है। दुनिया भर के मवेशी अकेले ऐसे भोजन का सेवन करते हैं जो 8.7 बिलियन लोगों की कैलोरी की जरूरत को पूरा कर सकता है – जो कि पूरी मानव आबादी कि जरूरत पूरी करने से अधिक है।

शाकाहारियों को जरूरत के अनुसार प्रोटीन प्राप्त करने में कठिनाई नहीं होती है ?

असली समस्या यह है कि बहुत से लोगों को अधिक प्रोटीन मिलने का खतरा है, कम प्रोटीन मिलने का नहीं। अधिकांश मांस खाने वाले लोग प्रोटीन की आवश्यकता के अनुसार लगभग सात गुना अधिक उपभोग प्रोटीन खाते हैं। शाकाहारियों को गेहूं की रोटी, आलू, सेम, मक्का, मटर, मशरूम या ब्रोकोली से पर्याप्त मात्र में प्रोटीन मिल जाता है – वास्तव में, लगभग हर भोजन में प्रोटीन होता है। अगर आप ज्यादा मात्र में जंक फूड ना खाये तो फिर इतनी कैलोरी खा पाना असंभव है जितनी बिना प्रोटीन खाये अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।  इसके विपरीत, बहुत अधिक प्रोटीन खाना ऑस्टियोपोरोसिस रोग का एक प्रमुख कारण है और किडनी का फ़ेल होना अन्य रोगों बढ़ावा देने में योगदान देता है।

स्वस्थ रहने के लिए इंसानों को मांस खाने की जरूरत नहीं ?

अमेरिकी कृषि विभाग और अमेरिकी आहार संघ दोनों ने शाकाहारी आहार का समर्थन किया है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि मांसाहारियों की तुलना में शाकाहारियों की इम्यून (प्रतिरक्षा) प्रणाली अधिक मजबूत होती है जबकि मांस खाने वालों में हृदय रोग से मृत्यु होने की संभावना लगभग दोगुनी होती है, कैंसर से मरने की संभावना 60 प्रतिशत अधिक होती है तथा अन्य रोगों से मृत्यु की संभावना 30 प्रतिशत अधिक होती है। मांस एवं डेयरी उत्पादों के सेवन मधुमेह, गठिया, ऑस्टियोपोरोसिस, अर्थेराईसिस, मोटापा, अस्थमा और नपुंसकता जैसे रोगों से जोड़ता है।

क्या मांस खाना स्वाभाविक नहीं है? क्या यह हजारों वर्षों से नहीं चला आ रहा है? क्या हमारा शरीर मांस खाने के हिसाब से नहीं बना है?

वास्तव में, मानव शरीर शाकाहारी भोजन के लिए बेहतर है। मांसाहारी जानवरों में लंबे, घुमावदार नुकीले, पंजे और एक छोटा पाचन तंत्र होता है। मनुष्य के पास सपाट, लचीले नाखून होते हैं, और मांसाहारी लोगों तथा शाकाहारी प्राइमेट जैसे कि गोरिल्ला और ओरंग-यूटन की तुलना में हमारे तथाकथित “कैनाइन” दांत भी कम होते हैं। हमारे छोटे कैनाइन दाँत मांस काटने की बजाय फल काटने के लिए बेहतर हैं। हमारे पास प्लेन दाढ़ व एक लंबा पाचन तंत्र है जो सब्जियों, फलों और अनाज खाने के अनुकूल है। मांस खाना हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है; यह हृदय रोग, कैंसर और कई अन्य स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ावा देने में योगदान देता है।

दूध पीने में क्या बुराई है? क्या डेयरी में रहने वाली गायों से दूध नहीं लेना चाहिए ?

गाय को दूध प्रदान करने के लिए उसके पास बछड़े का होना जरूरी है। “डेयरी गायों” को हर साल कृतिम रूप पे गर्भधारण कराया जाता है ताकि वे लगातार दूध प्रदान करती रहें। सामान्य रूप से गाय का दूध उसके बछड़े के पीने के लिए होता है। लेकिन डेयरी फार्मों पर गायों के बच्चों को जन्म के बाद ही माँ से अलग कर दिया जाता है ताकि बछड़े के हिस्से का दूध मनुष्यों को मिल सके। डेयरी फार्मों पर मादा बछड़ों आगे चलकर दूध प्रदान करने के लिए पाला पोसा जाता है जबकि नर बछड़े दूध नहीं प्रदान करते इसलिए उनको या तो मांस के लिए कत्लखानों में भेज दिया जाता है या बेहद छोटे पिंजरो में कैद करके रखा जाता है जिसमे वो ठीक से घूम तक नहीं पाते । डेयरी उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण, गायों से उनकी प्राकृतिक क्षमताओं से कहीं अधिक प्राप्त करने के लिए कृतिम रूप से उनके हार्मोन विकसित किए जाते हैं ताकि वे बड़ी मात्रा में दूध का उत्पादन कर सकें। यहां तक ​​कि कुछ किसान जो जानवरों का पालन-पोषण नहीं करना चाहते हैं वह बछड़ों से छुटकारा पाने के लिए उन्हें कत्लखानों में मरने के लिए भेज देते हैं और जब गाय का शरीर दूद देने लायक नहीं रेह जाता तो या तो उनका मांस प्रप्प्त करने के लिए उन्हे उआ तो कत्लखानों में भेज दिया जाता है या फिर सड़क पर रहने के लिए छोड़ दिया जाता है।

मैं एक ऐसे शाकाहारी को जानता हूं जो अस्वस्थ है। उसका क्या ?

कुछ शाकाहारी अस्वस्थ होते हैं। लेकिन डॉक्टर इस बात से सहमत हैं कि कम वसा वाले आहार खाने वाले शाकाहारियों में लंबे समय तक जीवित रहने की संभावना रहती है तथा वो मांस खाने वालों की तुलना में स्वस्थ जीवन जीते हैं।

मुझे क्यों दोष देते हो? मैंने किसी जानवर को नहीं मारा।

नहीं, लेकिन आपने जनवार की हत्या करने का काम किसी और को काम सौंपा है। जब भी आप मांस खरीदते हैं, तो यह सुनिश्चित हो जाता है की उस प्राणी की हत्या आपके लिए की गई थी और आपने इसके लिए भुगतान किया था।

यदि आप समुद्र के बीच में किसी नाव पर हो और भूख से मर रहे हों और उसी नाव एक जानवर भी हो तो क्या आप अपनी भूख मिटाने के लिए उसे खाएँगे नहीं ?

मुझे नहीं पता, मनुष्य अपनी जान बचाने के लिए किसी भी चरम सीमा पर चला जाएगा, भले ही इसके लिए उसे एक निर्दोष जीव की जान ही क्यू न लेनी पड़े (लोगों ने ऐसी स्थितियों में अन्य लोगों को भी मार कर खाया है) हालांकि यह उदाहरण हमारे दैनिक दिनचर्या के लिए प्रासंगिक नहीं है। हम में से अधिकांश के लिए, भोजन के परिपेक्ष में जानवरों को मार कर खाने की न तो कोई आपात स्थिति है और न ही कोई बहाना है। 

चूंकि मुर्गियां स्वाभाविक रूप से अंडे देती हैं, तो अंडे खाने में फिर क्या गलत है ? सुपरमार्केट में हम जो अंडे खरीदते हैं, वे बाँझ होते हैं और अजन्मे भ्रूण नहीं होते हैं, है ना ?

यह सच है, हालांकि अंडे का उत्पादन क्रूर है इसलिए नहीं की अंडे नष्ट हो जाते हैं बल्कि इसलिए की जिन मुर्गियों से अंडे प्राप्त किए जाते हैं उन्हे फैक्ट्री फर्म्स पर अत्यधिक यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। भारत में फैक्ट्री फर्म्स की संख्या लगातार बढ़ रही है। एक आधुनिक फेक्टरी फार्म पर एक अंडा देने के बदले मुर्गी को लगभग 18 घंटे तक की पीड़ा सहनी पड़ती है इन फेक्टरी फर्म्स पर 5 मुर्गियों को फाइल रखने वाले दराज़ के बराबर के पिंजरों में बंद करके रखा जाता है। इन पिंजरों को एक के उपर एक कई सतहों में रखा जाता है इसलिए ऊपर वाले पिंजरो में बंद मुर्गियों का मल मूत्र नीचे वाली मुर्गियों के ऊपर आकर गिरता रहता है। लगातार अंडे दिये जाने एवकम चोटी सी जगह पर कैद रहने की वजह से इन मुर्गियों में लंगड़ापन व ऑस्टियोपोरोसिस रोग हो जाता है। लगातार पिंजरों में बंद रहने से उनके पैरों में सूजन आ जाती है और वो तारों के बने पिंजरों ठीक से चलकर भोजन तक नहीं पहुँच पाती जिस कारण उनकी मृत्यु हो जाती है। जब वह 2 वर्ष की हो जाती हैं तो उनकी अंडे देने की क्षमता समाप्त हो जाती है इसलिए उनको मांस के लिए कत्लखानों में भेज दिया जाता है। अंडा व्यवसाय में मुर्गों का कोई काम नहीं उन्हे बेकार समझकर उन्हे ग्राईंडर में कुचलकर, आग में जलाकर, पानी में डुबोकर या फिर दम घोटकर मार दिया जाता है।

 

अंगविच्छेद

क्या जानवरों पर प्रयोग करने के परिणामस्वरूप हमारी चिकित्सा तकनीक में उन्नति नहीं हुई है?

चिकित्सा के इतिहासकारों ने बताया है हमने जानवरों पर प्रयोगों से कुछ नहीं सीखा, स्वास्थ्य में सुधार लाने के उद्देश्य से जानवरों पर प्रयोग करके जो दवा तैयार की उस से कहीं अधिक पोषण, स्वच्छता और अन्य व्यवहार तथा पर्यावरणीय कारकों में सुधार होने से आम संक्रामक रोगों के कारण होने वाली मौतों में गिरावट आई है। स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में जो सबसे महत्वपूर्ण अध्ययन किए गए है वो सब मानव जीवन की बेहतरी के लिए हुए है, इनमे जिन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हांसिल की गयी है उनमे एनेसथीसिया, बैक्टीरियोलॉजी, रोगाणु सिद्धांत, स्टेथोस्कोप, मॉर्फिन, पेनिसिलिन, कृत्रिम श्वसन, एंटीसेप्टिक्स, एक्स-रे, सीएटी, एमआरआई, पीईटी स्कैन के साथ-साथ रेडियम के उपयोग, हृदय रोग एवं कोलेस्ट्रॉल के आपसी संबंध, धूम्रपान, कैंसर और एड्स के वायरस को अलग करने जैसी चिकित्सीय प्रणालियाँ मुख्य हैं। इन सबके विकसित होने व ऐसे ही अन्य तकनीके विकसित होने में पशु परीक्षणों की कोई भूमिका नहीं रही।

क्या वास्तव में यह संभव है की मूलभूत चिकित्सा अनुसंधान में भी जानवरों का उपयोग बंद कर दें, खासकर यह जानते हुए कि शोधकर्ताओं को कोशिकाओं, ऊतकों और अंगों के जटिल इंटरैक्शन को जाँचने एवं समझने की आवश्यकता होती है ?

क्लिनिकल एवं एपिडेमिओलॉजिकल विज्ञान अध्ययन के वो तरीके हैं जो नैतिक होने के साथ साथ किसी जीव को चोट पहुंचाए बिना अधिक स्पष्ट व सटीक तस्वीर पेश करते हैं। यहां तक ​​कि जब हम जानवरों के व्यवहार को समझते हैं तो हम इस बात की गारंटी नहीं दे सकते हैं कि उन पर किए गये शोध के नतीजे मनुष्यों पर भी लागू होंगे। जानवरों की विभिन्न प्रजातियां बीमारियों के दौरान विषाक्त पदार्थों और दवाओं को पचाने में इन्सानों की तुलना में भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, एस्पिरिन (दवा) की एक खुराक जो मनुष्यों में दवा का काम करती है किंतू बिल्लियों के लिए ज़हर होती है जबकि बुखार के ड़औरान एक घोड़े को एस्पिरिन देने से घोड़े पर कोई असर नहीं पड़ता। बेंजीन मनुष्यों में ल्यूकेमिया का कारण बनता है लेकिन चूहों में नहीं; इंसुलिन जानवरों में जन्म दोष पैदा करता है लेकिन इंसानों में ऐसा नहीं है। पशु प्रयोग इंसान के क्लिनिकल जाँचों के मुक़ाबले उपयुक्त नहीं हैं।

लेकिन आज हमारे पास जितने भी इलाज़ हैं – जैसे पोलियो की खुराक –सब जानवरों पर परीक्षण करके ही विकसित किए गए हैं?

दरअसल, पोलियो की खुराक दो अलग-अलग निकायों के माध्यम से तैयार की गयी थी -इन विट्रो तकनीक, जिसमें जानवरों पर परीक्षण नहीं किया गया था और इसी के परिणामस्वरूप नोबेल पुरस्कार मिला था, बाद में इस दवा को पशुओं पर परीक्षण करते हुए 10 लाख जानवरों को मार दिया गया था जिसके फलस्वरूप ‘नोबेल पुरस्कार समिति’ ने इसे बेकार मानते इसको नकार दिया था। इसके अलावा दुनिया में पोलियो की ख़ुराक का इस्तेमाल करने वाले देशों की तुलना में उन क्षेत्रों में पोलियो जल्द समाप्त हुआ जहां इस ख़ुराक का इस्तेमाल नहीं किया गया।

हालांकि, कुछ क्रूर पशु परीक्षणों के उपरांत बेहतर चिकित्सीय परिणाम भी प्राप्त हुए हैं किंतू इसका मतलब यह नहीं की वहां जानवरों पर परीक्षण करना ही जरूरी था या जो तकनीकें सन 1800 से चली आ रही है वह आज भी वैध हैं। पूरे चिकित्सा इतिहास में, गैर-पशु अनुसंधान विधियों के विकास हेतु बहुत कम संसाधन इस्तेमाल किए गए हैं, इसलिए यह कहना असंभव है कि अगर हम जानवरों पर प्रयोग करना बंद कर देते हैं तो फिर कहाँ प्रयोग करेंगे। वास्तव में, क्योंकि पशु प्रयोग अक्सर मानव स्वास्थ्य के संबंध में भ्रामक परिणाम देते हैं इसलिए उन पर भरोसा न करना ही बेहतर होगा।

जिन रोगों से लोग पीड़ित हैं उनका इलाज ढूंढते रहने के लिए जानवरों का उपयोग करने की जिम्मेदारी वैज्ञानिकों की नहीं है ?

लोगों को शिक्षित करना और उन्हें वसा और कोलेस्ट्रॉल से बचने के लिए प्रोत्साहित करना, धूम्रपान छोड़ना, शराब और अन्य दवाओं के अपने उपभोग को कम करना, नियमित रूप से व्यायाम करना और पर्यावरण को साफ रखने से दुनिया में पशु परीक्षणों की तुलना में कहीं अधिक इन्सानों को रोगों व पीड़ाओं से बचाया जा सकता है। पशु परीक्षण पुराने जमाने की तकनीक है और इसके अलावा, आधुनिक तकनीक और मानव नैदानिक ​​परीक्षण अधिक प्रभावी वा विश्वसनीय हैं।

यहां तक ​​कि अगर शोधकर्ता साबित कर दें कि उनके पास जानवरों का उपयोग करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है – जो कि वह कर नहीं सकते –तब भी पशु परीक्षणों को नैतिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता। जैसा कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एक बार कहा था, “केवल यह दिखाने से कि यह किसी काम का है, आप इस बात को साबित नहीं कर सकते कि यह प्रयोग उचित है या अनुचित। यह बात प्रयोग के उचित होने या अनुचित होने कि नहीं बल्कि यह बर्बर और सभ्य व्यवहार के बीच का भेद करने कि है।” कुछ चिकित्सा समस्याएं हैं जो शायद केवल अनिच्छुक लोगों पर परीक्षण करके ठीक की जा सकती हैं, लेकिन हम ऐसे परीक्षण नहीं करते हैं, क्योंकि हम मानते हैं कि ऐसा करना गलत होगा।

यदि हम जानवरों पर प्रयोग नहीं कर सकते, तो क्या फिर नई दवाओं का परीक्षण इन्सानो पर करना होगा?

पसंद जानवरों और लोगों के बीच नहीं है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि दवा सिर्फ इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि उनका जानवरों पर परीक्षण किया गया है। क्योंकि मनुष्यों और अन्य जानवरों के शरीर में बड़ा अंतर है, जानवरों पर किए गए परीक्षणों के परिणाम मनुष्यों के लिए सही होंगे यह नहीं कहा जा सकता। जानवरों पर परीक्षण की गयी दवाएं हमारे स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल सकती हैं।

विडंबना यह है कि पशु परीक्षण करने से प्रतिकूल परिणाम आने पर दवा को इन्सानों के उपयोग के लिए बेचे जाने से नहीं रोका जाता। जानवरों और मनुष्यों पर पड़ने वाले प्रभावों में अंतर के बारे में इतने सबूत जमा हो गए हैं कि सरकारी अधिकारी अक्सर जानवरों के अध्ययन के निष्कर्षों पर कार्य नहीं करते हैं। पिछले दो दशकों में, कई दवाओं – जिनमें फेनासेटिन, ई-फेरोल, ओराफ्लेक्स, सुप्रोल और सेलेक्रिन शामिल हैं – को सैकड़ों मौतें और चोटों के कारण बाजार से हटा दिया गया। वास्तव में, 1976 और 1985 के बीच स्वीकृत अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन की आधी से अधिक दवाओं को या तो बाज़ार से हटा दिया गया या उन्हें स्थानांतरित कर दिया गया क्योंकि इन दवाओं से इंसानी जीवन पर गंभीर दुष्प्रभाव हुए थे। यदि फार्मास्युटिकल उद्योग में पशु प्रयोगों कि बजाय फार्माकोलॉजी और इन विट्रो परीक्षणों के प्रयोग दवाएं बनाई जाए तो इंसान कम नहीं बल्कि अधिक सुरक्शित रहेगा।

यदि हम जानवरों पर परीक्षण नहीं करते हैं, तो हम चिकित्सा से संबन्धित अध्ययन कैसे करेंगे?

परीक्षणों कि आधुनिक तकनीकों जैसे Cadavers, कंप्यूटर सिमुलेटर, मानव क्लीनिकल एवं एपिडेमिओलोजीकल विज्ञान के अध्ययन का उपयोग पशु परीक्षणों का उपयोग करने की तुलना में तेज़, अधिक विश्वसनीय, कम खर्चीला और अधिक मानवीय है। पूर्व के वैज्ञानिकों ने मानव मस्तिष्क कोशिकाओं पर “माइक्रोब्रेन” नामक एक मॉडल विकसित किया है जिसका उपयोग ट्यूमर का अध्ययन करने के लिए किया जा सकता है। उन्होंने कृत्रिम त्वचा और कृत्रिम अस्थि मज्जा भी विकसित किया है। अब हम अंडे की झिल्लियों पर ‘खीझ’ (चिड़चिड़ापन) का परीक्षण कर सकते हैं, खरगोशों को मारने के बजाय रक्त के नमूनों का उपयोग करके गर्भावस्था परीक्षण कर सकते हैं व सेल से टीकों का उत्पादन कर सकते हैं। फार्माजेन लेबोरेट्री (एक कंपनी जो मानव टिश्यू एवं कंप्यूटर तकनीकों के द्वारा दवाओं के निर्माण करती है) के सह संपादक ‘गॉर्डन बैक्सटर’ कहते हैं- “यदि आपके पास मानव जीन की जानकारी है, तो फिर जानवरों पर जाकर परीक्षण करने कि क्या जरूरत है?” 

पशु चिकित्सा विज्ञान को आगे बढ़ाने से क्या जानवरों का प्रयोग भी जानवरों की मदद नहीं करता है?

यह कहना बिलकुल वैसा ही है जैसे कि अमीर लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए गरीब बच्चों पर प्रयोग करना जायज़ है। सवाल यह नहीं है कि पशु प्रयोग जानवरों या मनुष्यों के लिए उपयोगी हो सकते है, बल्कि सवाल यह है कि क्या हमें जानवरों को अनावश्यक रूप से दुख पहुंचाने का नैतिक अधिकार है या नहीं क्यूंकी वो हमारी दया पर हैं।  

क्या मेडिकल छात्रों को सीखने के लिए जानवरों को काटना होता है ?

नहीं, मेडिकल के छात्रों को इसकी जरूरत नहीं। वास्तव में, अधिक से अधिक मेडिकल छात्र कर्तव्यनिष्ठ बन रहे हैं, और कई छात्र अब जानवरों का उपयोग किए बिना स्नातक कि उपाधि हांसिल कर रहे हैं; वह जानवरों पर परीक्षण कि बजाय अनुभवी सर्जनों की सहायता से वह सब सीख लेते हैं। ब्रिटेन में, मेडिकल छात्रों का जानवरों पर सर्जरी का अभ्यास करना गैरकानूनी है और ब्रिटिश चिकित्सक उतने ही सक्षम हैं जितना कि किसी और देश के चिकित्सक। हार्वर्ड, येल और स्टैनफोर्ड सहित कई प्रमुख अमेरिकी मेडिकल स्कूल अब पुराने जमाने की प्रयोगशालाओं के बजाय नए नैदानिक ​​शिक्षण विधियों का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए, हार्वर्ड एक कार्डियक एनेस्थीसिया प्रेक्टिकल प्रदान करता है जिसमें छात्र डॉग लैब पर निर्भर होने के बजाय मानव हृदय की बाईपास सर्जरी करना सीखते हैं। इसे विकसित करने वाले हार्वर्ड स्टाफ के सदस्यों ने इसे अन्य जगहों पर लागू करने की सिफारिश की है। 

क्या हमें उन सभी दवाओं को फेंक देना चाहिए जिन्हें जानवरों पर परीक्षण के माध्यम से विकसित किया गया था? क्या आप उन्हें लेने से मना करेंगे ?

दुर्भाग्य से, शोषण के परिणामस्वरूप हमारे समाज में कई चीजें सामने आई हैं। उदाहरण के लिए, दुनिया भर में कई सड़कें गुलामों के द्वारा बनाई गई थीं। हम अतीत को नहीं बदल सकते। जो पहले से पीड़ा सहते हुए मारे जा चुके है अब वो इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन हम अभी से गैर-पशु अनुसंधान विधियों का उपयोग करके भविष्य को बदल सकते हैं।

क्या हमारे कानून जानवरों को क्रूरता से नहीं बचाते ?

पशु संरक्षण कानून अभी भी दर्दनाक प्रयोगों की अनुमति देते हैं व खराब रूप से लागू होते हैं। “विज्ञान” के नाम पर प्रयोगशालाओं में जानवरों को अक्सर भूखा रखा जाता है, बिजली के झटके दिये जाते हैं, अत्यधिक पीड़ा के द्वारा उनको टांका लगाने वाले यंत्रो से छेदा जाता है व जला दिया जाता है।

 क्या अधिकांश वैज्ञानिक जानवरों की परवाह नहीं करते हैं? या फिर क्यूंकि उनके शोध जानवरों पर निर्भर करते हैं, इसलिए उन्हें जानवरों कि परवाह नहीं करनी चाहिए ?

अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में जांच से पता चलता है ऐसा नहीं है। कैलिफ़ोर्निया के होप शहर के एक प्रमुख शोध केंद्र पर “गलती से” जानवरों को मौत के घाट उतार दिया और उन्हे उनके ही मल डुबो दिया गया। कई प्रयोगकर्ता वर्षो तक जब ऐसे ही अनुसंधान करते रहते हैं तो उनका हृदय बेरहम हो जाता है वो जानवरों की पीड़ा को महसूस नहीं कर पाते व उनको बस अनुसंधान के लिए डिस्पोजेबल उपकरण मानते हैं। वहाँ जानवरों की देखभाल को “खर्चीला” समझा जाता है।

संस्थानों में सहकर्मी समीक्षा और पशु देखभाल समितियों के बारे में क्या ?

ज़्यादातर ऐसी समितियां पशु प्रयोगों में रूचि रखने वाले लोगों से मिलकर बनी होती हैं। पशु अधिकारों का समर्थन करने वालों को इन संस्थाओं की बैठकों कि जानकारी सार्वजनिक कराने कि अनुमति हेतु मुकदमे दायर करने पड़े। 

क्या आप एक ऐसे प्रयोग की अनुमति देंगे जो 10,000 लोगों को बचाने के लिए 10 जानवरों की बलि देगा?

मान लीजिए कि उन 10,000 लोगों को बचाने का एकमात्र तरीका मानसिक रूप से विकलांग अनाथ पर प्रयोग करना था। यदि लोगों को बचाना लक्ष्य है, तो क्या फिर यह जायज़ है? अधिकांश लोग इस बात से सहमत होंगे कि “अधिक अच्छे” मानव की जान बचाने के लिए किसी दूसरे मानव की जान कुयरबान कर दी जाए, क्योंकि ऐसा करना उस व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन होंगा। लेकिन जब जानवरों की बलि देने की बात आती है, तो यह धारणा आफ्नै जाती है कि इंसान की जान के सामने जानवर कि जान कि कोई कीमत नहीं। फिर भी ऐसा कोई तर्क नहीं कि जानवरों को उन अधिकारों से वंचित रखा जाए जो इन्सानो की भलाई के लिए उनको बलिदान होने से बचाए।  

उन प्रयोगों के बारे में क्या जो जानवरों को नुकसान नहीं पहुँचाते लेकिन शोधकर्ताओं को उन्हें करने की अनुमति देते हैं?

यदि कोई प्रयोग वास्तव में जानवरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं, तो हम उस पर आपत्ति नहीं करते। लेकिन “कोई नुकसान नहीं” का अर्थ है कि जानवरों को बंजर, ठंडे स्टील के पिंजरों में अलग-थलग नहीं रखा गया है, क्योंकि तनाव और कैदी बनाकर रखने का डर हानिकारक है, जैसा कि बंदी और मुक्त जानवरों के बीच रक्तचाप के अंतर से स्पष्ट है। बंदी जानवर भी पीड़ित होते हैं क्योंकि उन्हें सामान्य व्यवहार में उलझने और सामाजिक संपर्क में भाग लेने से रोका जाता है।
यदि आप आग से जूझ रहे हों और आपके सामने अपने बच्चे या अपने कुत्ते में से किसी एक को बचाने का विकल्प हो तो आप किसे बचाना चाहेंगे?

यह स्वाभाविक है कि मैं अपने बच्चे को बचाऊंगा। एक कुत्ता अपने बच्चे को बचायेगा। इन दोनों में से मैं किसी को भी बचाऊं लेकिन मेरी पसंद पशुओं पर प्रयोग करने को सही मान लेने की धारणा का निर्माण नहीं करती। मैं अपने पड़ोसी के बच्चे के बजाय अपने बच्चे को बचा सकता हूं, लेकिन इससे क्या यह साबित होता है कि मेरे पड़ोसी के बच्चे पर प्रयोग करना नैतिक रूप से सही है।