PETA इंडिया ने अपने नए प्रिंट अभियान के द्वारा कॉलेज छात्रों को जागरूक किया कि ‘मुर्गियां क्रूरता से सहमत नहीं हैं’
मुर्गों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मान दिवस (4 मई) से ठीक पहले और भारत के साथ-साथ विश्वभर के कॉलेज कैम्पसों में सहमति (consent) पर होने वाली महत्वपूर्ण चर्चा के दौरान PETA इंडिया ने कॉलेज और विश्वविद्यालयों के बाहर एक नए बिलबोर्ड अभियान की शुरुआत करी जिसके ज़रिये छात्रों को जागरूक किया गया कि मुर्गियां मांस और अंडा हेतु अपने शरीर के उपयोग और दुरुपयोग के लिए सहमत नहीं हैं। ये प्रिंट अभियान अमृतसर, गोवा और हैदराबाद के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के पास लगाए गए हैं।
मांस के लिए उपयोग की जाने वाली अधिकांश मुर्गियां अपना पूरा जीवन भीड़-भाड़ वाले, गंदे शेडों में व्यतीत करती हैं और उन्हें अस्वाभाविक रूप से बड़े ऊपरी शरीर को विकसित करने के लिए ब्रेड किया जाता है जिसके वज़न के कारण अक्सर उनके पैर अपंग हो जाते हैं। अंडा उद्योग में, मुर्गियों को प्रति वर्ष 300 से अधिक अंडे देने के लिए मजबूर किया जाता है जबकि उनकी प्राकृतिक क्षमता केवल 15 अंडे प्रति वर्ष की होती है। एक स्वस्थ मुर्गी प्रकर्तिक रूप से 10 साल तक जीवित रह सकती है लेकिन फार्मों पर वह केवल 2 साल ही जीवित रह पाती हैं। जब उनकी अंडा देने की क्षमता कम हो जाती है तो उन्हें बेकार मानकर अन्य मादाओं से भरी गाड़ी में लादकर मरने के लिए बूचड़खाने या मांस बाजार में भेज दिया जाता है जहां मांस प्राप्त करने के लिए उनके सचेत अवस्था में रहते उनकी गला काट कर हत्या कर दी जाती है। इसी तरह, लाखों नवजात नर चूजों को अंडा देने की क्षमता न होने के कारण विभिन्न क्रूर तरीकों से मौत के घाट उतार दिया जाता है जैसे इन चूजों को कचरे के थैलों या चक्की में फेंक दिया जाता है ताकि उनका दम घुट जाए या उन्हें कुचलकर एवं काटकर मार दिया जाता है। कई बार उन्हें डूबाकर या जलाकर भी मौत के घाट उतार दिया जाता है।