बड़ी जीत: गौहाटी उच्च न्यायालय ने PETA इंडिया की याचिकाओं के जवाब में भैंस और बुलबुल की लड़ाई पर प्रतिबंध लगा दिया
PETA इंडिया द्वारा दायर याचिकाओं के जवाब में, गौहाटी उच्च न्यायालय ने 27 दिसंबर 2023 की असम सरकार की एसओपी को रद्द कर दिया, जिसने वर्ष के एक निश्चित समय (जनवरी में) के दौरान भैंस और बुलबुल पक्षियों की लड़ाई की अनुमति दी थी। याचिकाएँ गौहाटी उच्च न्यायालय में माननीय श्री न्यायमूर्ति देवाशीष बरुआ के समक्ष सूचीबद्ध की गईं और PETA इंडिया के इस तर्क के समर्थन में वरिष्ठ अधिवक्ता श्री दिगंता दास द्वारा विस्तृत प्रस्तुतियाँ दी गईं कि भैंस और बुलबुल की लड़ाई पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 का उल्लंघन करती है। बुलबुल की लड़ाई वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 का भी उल्लंघन करती है, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया। गौहाटी उच्च न्यायालय ने एसओपी को भारतीय पशु कल्याण बोर्ड बनाम ए नागराजा मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 7 मई 2014 को पारित फैसले का उल्लंघन माना।
सबूत के तौर पर, PETA इंडिया ने इन लड़ाइंयों की जांच के परिणाम सौंपे थे जिसमें पता चला कि दरी सहमी और गंभीर रूप से घायल भैंसों को पीट-पीटकर लड़ने के लिए मजबूर किया गया था और भूखी और नशे में धुत्त बुलबुलों को भोजन के लिए लड़ने के लिए मजबूर किया गया था। PETA इंडिया ने एसओपी के माध्यम से अनुमति दी गई तारीखों के अलावा आयोजित हुई अवैध लड़ाइयों के कई उदाहरण भी प्रस्तुत किए थे, जिसमें तर्क दिया गया था कि वर्ष के किसी भी समय लड़ाई की अनुमति देने से जानवरों और पक्षियों के साथ भारी दुर्व्यवहार हो रहा है।
PETA इंडिया द्वारा 16 जनवरी को असम के मोरीगांव जिले के अहातगुरी में हुई भैंसों की लड़ाई की जांच से पता चला कि भैंसों को लड़ने के लिए उकसाने के लिए, मालिकों ने उन्हें मारा, धक्का दिया; उनको बेरहमी से लकड़ी की छड़ों से पीट और उन्हें एक दूसरे के पास आने के लिए मजबूर करने के लिए उनकी नाक की रस्सियों से खींच गया। जब लड़ाई चल रही थी, तो कुछ मालिकों और संचालकों ने भैंसों को लाठियों से मारा और उन्हें और अधिक परेशान करने के लिए नंगे हाथों से पीटा। भैंसों ने आपस में सींग फसा लिए और लड़ने लगीं, जिससे उनकी गर्दन, कान, चेहरे और माथे पर खूनी घाव हो गए – कई के पूरे शरीर पर चोटें आईं। लड़ाई तब तक जारी रही जब तक कि दो भैंसों में से एक गिरकर बेहोश नहीं हो गई या फिर भाग नहीं गई।
15 जनवरी को असम के हाजो में आयोजित बुलबुल पक्षियों की लड़ाई की जांच से पता चला कि रेड-वेंटेड बुलबुल – जो वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची II के तहत संरक्षित हैं – को उनके प्राकृतिक स्वभाव के खिलाफ अवैध रूप से पकड़ लिया गया और भूख रखकर उन्हें भोजन के नाम पर लड़ने के लिए उकसाया गया।
बताया जाता है कि लड़ाई से कई दिन पहले पक्षियों को पकड़ लिया जाता है। संरक्षित जंगली पक्षियों को पकड़ना शिकार का एक रूप माना जाता है और यह अवैध है।
कथित तौर पर पक्षियों को उत्तेजित करने के लिए उन्हें आमतौर पर मारिजुआना का नशा दिया जाता है और अन्य नशीली जड़ी-बूटियाँ, केले, काली मिर्च, लौंग और दालचीनी खिलाई जाती हैं, फिर लड़ाई से पहले उन्हें कम से कम एक रात के लिए भूखा रखा जाता है। लड़ाई के दौरान, भूखे पक्षियों के सामने केले का एक टुकड़ा लटका दिया जाता है, जो उन्हें एक-दूसरे पर हमला करने के लिए उकसाता है। प्रत्येक लड़ाई लगभग पांच से 10 मिनट तक चलती है और संचालक थके हुए पक्षियों पर बार-बार हवा मारकर उन्हें लड़ाई जारी रखने के लिए मजबूर करते हैं।
उच्च न्यायालय में PETA इंडिया की याचिका में बताया गया कि भैंस और बुलबुल की लड़ाई ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960’ और भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, जिसमें भारतीय पशु कल्याण बोर्ड बनाम ए नागराजा भी शामिल है, भारत के संविधान का उल्लंघन है। PETA इंडिया यह भी नोट करता है कि इस तरह के झगड़े स्वाभाविक रूप से क्रूर होते हैं, इसमें भाग लेने के लिए मजबूर जानवरों को अथाह दर्द और पीड़ा होती है, और अहिंसा (अहिंसा) और करुणा के सिद्धांतों का खंडन करते हैं, जो भारतीय संस्कृति और परंपरा का अभिन्न अंग हैं।